व्हाट्स योर स्टेट्स.....

दूबे जी समाज में स्वयं के गिरते हुए प्रतिष्ठा से आहत हैं।मुझे लगा कि शायद उनके बेटे ने फिर तीसरी गली के लोकल कटरीना को छेड़ दिया है,पर मामला कुछ और ही था।पड़ताल की तो पता चला कि वो तो अपने फेसबुक अकाउन्ट के स्टे्टस अपडेट पर,कम होते कमेंट्स की संख्या से दुःखी है।कहने लगे कि इक ज़माना था कि जब उनके स्टे्टस अपडेट करते ही लोगों द्वारा बीसियों कमेंट्स की झड़ी लग जाती थी।आज तो बमुश्किल कोई ‘लाइक दिस’ का बटन दबा दे,वही बड़ी बात है।दूबे जी की मानें तो आज के ज़माने में सम्मान का प्रतीक गाड़ी,बंगला,बैंक बैलेंस नहीं बल्कि स्टे्टस अपडेट पर गिरते हुए कमेंट्स और ‘लाईक दिस’ करने वालों की संख्या है।सामाजिक रूतबे के इस नए फंडे को जानकर मैं तो चौंक ही गया।

तकनीकी समस्या का हल तकनीक से ही सम्भव है,सो मैंने उन्हें राय दी कि अगले बार से स्टेटस अपडेट करते समय वो गु्रप एस एम एस का प्रयोग करके सभी को कमेंट करने के लिए सूचित कर दिया करें। ऐसा लगा कि मानो मैने उन्हें लाल कपड़ा दिखा दिया हो।कहने लगे कि सम्मान मांग कर नही कमाया जाता।इससे अच्छा तो वो मरना यानि एकाउंट डिलीट करना पसंद करेंगे।उनके जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए जब मैंने उनके धुर विरोधी तिवारी जी के स्टे्टस अपडेट की तारीफ की तो वो बिलबिला उठे।उनकी मानें तो तिवारी जी स्चयं के द्वारा ही बनायी हुई अनगिनत फेक आई डीज् से अपने स्टे्टस पर कमेंट करते रहते हैं।दूबे जी का तो यह भी मानना है कि वो दिन दूर नहीं जब कमेंट्स लिखना ‘पेड सर्विस‘ हो जाए।

इंटरनेट क्रांति के चलते अभिव्यक्ति का जबरदस्त माध्यम बनकर उभरा ब्लागिंग,अब सिकुड़कर माइक्रोब्लागिंग में बदल गया है।चंद लफ्जों में जमाने भर की बात कह देना,एक आर्ट बन गया है।गौर से देखा जाए तो ये स्टे्टस अपडेट्स अपनी बुद्धिजीविता,ज्ञान,दंभ,हैसियत आदि को दिखाने का एक ज़रिया बनकर उभरीं हैं।सोशल नेटवर्किंग के इस हथियार को कोई विवादों को जन्म देने के लिए प्रयोग कर रहा है((आईपीएल विवाद की शुरुआत ललित मोदी ने ट्व्टिर पर ही की थी)तो कोईअपने विरूद्व प्रचलित अफवाहों का खंडन करने के लिए (अमिताभ ने कई मुद्दों पर सफाई अपने ब्लाग के जरिए ही दी है)अपनों से ही बेगाने हो चले उनके छोटे भाई अमर सिंह भी अपने दिल का दर्द ब्लाग की ज़बानी ही व्यक्त करते हैं।फिर वो सचिन जैसे क्रिकेट खिलाड़ी हों या नरेन्द्र मोदी और नीतिश कुमार जैसे राजनीति के मझे हुए खिलाड़ी,शाहरूख जैसा बालीवुड का बादशाह हो या विजय माल्या जैसा उद्योगपति,कोई भी इसके मोह से अछूता नहीं।

फीडबैक के बिना कम्यूनीकेशन अधूरा है।शायद यही वजह है कि विचारों पर सहमति असहमति को जानने से लेकर शादी में पहने जाने वाली ड्रेस तक पर आम राय इन ब्लाग्स पर मांगी जा रही है।सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठाने का काम भी कर रहे हैं,ये ब्लाग और स्टेटस अपडेट्स।निरूपमा पाठक हत्याकांड के बाद बने अनेक ब्लाग्स,फोरम और लोगों के स्टेटस अपडेट इसके गवाह हैं।जब किसी धर्मगुरू ने कहा कि दुनिया में आने वाले प्राकृतिक आपदाओं की वजह महिलाओं के छोटे कपड़े पहनना है,तो सोशल साइट पर शुरू हुआ ‘बूब क्वेक’ जैसा अभियान सारी दुनिया के स्त्रियो के विरोघ का स्वर बना।एक शाम जब अचानक से दुनिया भर की महिलाओं के स्टेटस अपडेट में,रेड,ब्लू,ब्लैक आदि रंग लिखा दिखाई दिया तो पता चला कि यह ब्रेस्ट कैंसर के अवेयरनेस हेतु गुपचुप तरीके से चलाया जा रहा ब्रा कलर कैंपेन था।रूढ़ियों को तोड़ती और दुनिया को जोड़ती,,अभिव्यक्ति और आज़ादी का अगुआ बन चुके हैं,ये ब्लाग्स और स्टे्टस अपडेट्स।

कुछ दिन पहले सुना कि किसी ने बीसियों साल पहले खो चुके अपने परिवार को फेसबुक के जरिए ढं़ूढ निकाला। किसी को बहुत ही रेयर मिलने ब्लड गु्रप का खून,एक स्टे्टस अपडेट के ज़रिए बड़ी ही आसानी से उपलब्घ हो गया।ंअब तो सुना है कि लिख कर ब्लागिंग करने के दिन गए,‘बबली’ के जरिए अब बोल के ब्लागिंग होगी।आने वाले समय में हो सकता है कि सोच के भी ब्लागिंग करना सम्भव हो जाए।पर असल बात तो यह है कि इस सोशल नेटवर्किंग,ब्लागिंग और माइक्रोब्लागिंग ने बहुत कुछ बदला है और आने वाले समय में,और भी बहुत कुछ इनके ज़रिए बदलेगा,यह मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता।
२३ जून को i-next में प्रकाशित.http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=6/23/2010&editioncode=1&pageno=12#

बीते हुए लम्हों की कसक....


दूबे जी को सड़कों के किनारे खोमचे पर कुछ खाते देखना एक दुर्लभ संयोग है.वैसे भी,उनके जैसे चमड़ी और दमड़ी दोनों को ही एक समान महत्व देने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा करते दिखना,धूमकेतु दिखने जैसा ही है.पडोसी होने के नाते उनसे मिलते ही,मैंने बेमन से यह आग्रह कर डाला कि अगर मिसेज दूबे घर पर नहीं है तो आज रात का भोजन वो मेरे घर ही कर लें. भोजन के निमंत्रण पर भावुक हो उठे दूबे जी बताने लगे कि आज फिर से 'दुबाईन' ने घर पर भूख हड़ताल छेड़ दी है.कारण यह है कि आज सालों बाद दूबे जी पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने निकले और गलती यह कर दी कि सिंगल स्क्रीन थीएटर का रुख कर लिया.बाकी,सीनेमाहॉल के फटे हुए सीट्स,अचानक कटते सीन्स,बीच बीच में गायब संवाद,धुंधली स्क्रीन और बेवजह पॉवर कट ने श्रीमती जी का मूड ख़राब कर दिया.
'दुबाईन' के गुस्से को मैंने जायज करार दिया.मैंने समझाया कि वो थोडा ज्यादा पैसे खर्च कर के वो किसी मल्टीप्लेक्स का रुख भी तो कर सकते थे.पैसों की बात आते ही वो तड़प उठे.वैसे भी,वो देश में तेजी से घटते सिंगल थीयेटर्स की कमी से काफी दुखित थे.कहने लगे कि बरसाती घास की पनपते इन मल्टीप्लेक्सों की वजह से ही यह सिंगल स्क्रीन हाल अब 'इनडेनजर्ड स्पीसीज' की श्रेणी में आ गयें हैं.बात तो उनकी सही थी.तेजी से बंद होते यह सिंगल स्क्रीन थियेटर अब देश में करीब ११००० ही रह गए हैं. जबरदस्त घाटे सहते यह थीयेटर्स या तो अश्लील या भोजपुरी सिनेमा का केंद्र बन गए हैं या बंद होकर शहर में लगने वाले विभिन्न सेल्स के लिए मुफीद जगह बन चुके हैं.
मैंने दूबे जी को समझाया कि इन्ही मल्टीप्लेक्सों की वजह से तो आज हमें एक ही स्थान पर कई फिल्मों का विकल्प मिल जाता है.गुस्साए दूबे जी ने मल्टीप्लेक्सों को सिर्फ फर्जी स्टेटस सिम्बल और पैसे के शो ऑफ का अड्डा करार दे डाला.कहने लगे कि काहे का विकल्प उपलब्ध हुआ है?आज भी भारतीय जनता घर पर ही मूवी डीसाएड करके हॉल का रुख करती है.कुछ एक ही ठलुए ऐसे हैं जो समय हत्या के लिए कोई भी मूवी देख लें.सो विकल्पों की बात तो बेइमानी है.बहरहाल,देखा जाए तो,१५० रूपए में टिकट ,3० रूपए में दो समोसा,५० रूपए में सूखा सैंडविच और करीब उतने में ही एक कोल्डड्रिंक खरीदना दूबे जी के लिए ही नहीं,बहुतों के लिए एक हर्कुलियन टास्क है
सोचने की बात तो है.तेजी से बढ़ते इन मल्टीप्लेक्सों ने ही सिंगल स्क्रीन थीयेटर्स को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत बना दिया है.एक तो बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों ने इस व्यवसाय के तरफ रुख किया है,रही सही कसर,सरकार की नीतियों ने पूरी कर दी है.मल्टीप्लैक्स वालों को किसी छोटे शहर के सिंगल स्क्रीन थियेटर वालों से भी कम मनोरंजन कर देना होता है क्योंकि इन मॉल्स को सरकार ने पनपते उद्योगों की श्रेणी में रखा है.लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमा को भारी मनोरंजन कर के अलावा एज्यूकेशन टैक्स,रोड टैक्स आदि कई तरह के टैक्स देने पड़ते हैं। यही नहीं, साप्ताहिक कलेक्शन का 1 प्रतिशत सरकारी संस्था ‘फिल्म्स डिवीजन’ को और प्रॉपर्टी टैक्स महानगर पालिका को देना पड़ता है।ऐसे में यह घाटे सहकर बंद न हो तो और क्या हो?
लेकिन इन सिंगल स्क्रीन्स के बंद होने की वजह सिर्फ यही नहीं है.आज हम सभी अपने पैसे की पूरी वसूली चाहते है.सुविधाओं के इसी भूख को पूरा किया है-मल्टीप्लेक्सेस ने.सिंगल स्क्रीन थियेटर का गन्दा पड़ चुका शौचालय,मल्टीप्लेक्स के एयर फ्रेशनर युक्त वाशरूम में तब्दील हो चुका है.अधिकतर सिंगल स्क्रीन थियेटर पीकदान बन चुके है.सीटें और मशीनें खस्ताहाल हैं.गर्मियों में झुलसते यह खाली पड़े हाल अब युवा और प्रौढ़ दोनों प्रकार के प्रेमी युगलों के लिए ख्वाबगाह बन चुके हैं जो उन्हें मनोवांछित अँधेरा प्रदान करता है.रही सही कसर इन हाल्स में भीड़ का एक हिस्सा फिल्म के दौरान अश्लील और भद्दे कमेंट्स से पूरा कर देता है,जो सभ्रांत तबके को इन हाल्स में आने से रोकता है.
मनोरंजन को नयी परिभाषा देतीं इन मल्टीप्लेक्सों ने आज हमें सबकुछ दे दिया है पर टिकट खिड़की की वो गहमा-गहमी,टिकट ब्लैकियों से वो मोलतोल,हजारों के बीच बालकोनी में बैठने का वो शाही अंदाज़ और सामने की कतार से आने वाले वो तीखे कमेंट्स जो बरबस ही होटों पर मुस्कान ला देते थे,छीन लिया है.हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इन बंद हो चले या घाटा झेल रहे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को बचाने के लिए उन्हें शॉपिंग मॉल में बदलने की मंजूरी देने का फैसला किया है पर सिर्फ इतना प्रयास काफी नहीं है.अगर हम सभी ने मिलकर मनोरंजन के इस गौरवशाली अतीत को नहीं सहेजा तो शायद एक दिन सिंगल स्क्रीन का वह दशकों पुराना सुनहरा दौर किताबी इतिहास का हिस्सा बन कर रह जाए.

rishta.com

दूबे जी के निशाने पर आजकल, मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर्स हैं. सुना है, उन्होंने घर के सारे मोबाइल कनेक्शन बंद कराके, पुन: सरकारी डेस्क फोन (की पैड पर ताला चाभी युक्त) की सुविधा ले ली है. करें भी क्यों ना..इस महीने उनके मोबाइल का बिल ही कुछ ऐसा आया है. उनके बड़े बेटे ने आईपीएल के दौरान उंगली क्रिकेट में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. रही सही कसर छोटे सुपुत्र ने पूरी कर दी है. मैंने दूबे जी को समझाया कि बिल के बारे में एक बार कम्पनी में बात करके देखें. तकनीकी गड़बड़ संभव है. उन्होंने मुझे ऐसा घूरा मानो आखों से ही भस्म कर देंगे. कहने लगे कि यह सब वो पहले ही कर चुके हैं. यह तो उनके लाडले के यारी दोस्ती सेवाओं का नतीजा है.

वो बताने लगे कि यह सब सिर्फ एक मैसेज से शुरू हुआ. मैसेज था, हैलो, मैं बिपाशा, मुझसे दोस्ती करोगे? बस इसी मैसेज के बाद उनका सपूत बिपाशा के मोह जाल में फंस गया. ज्यादा गुस्सा तो इस बात का भी है कि उनके सुपुत्र की बिपाशा, बिपाशा बसु की जगह कानपुर की बिपाशा निकल गयी. अब उन्हें कौन समझाए कि चंद मासिक शुल्क और 3 रुपया मिनट की दर पर इससे ज्यादा और क्या मिलेगा? वैसे, आजकल मोबाइल पर मिलने वाली इस प्रकार की ऐड ऑन सेवाओं से आप बाखूबी परिचित होंगे. लेकिन इस तरह की सर्विसेज कई तरह के सवाल भी खड़े करती हैं.

तकनीकी क्रांति ने हमें सब कुछ दिया है. हमें सामाजिक तौर पर और सक्रिय बनाया. आज हम अपने दोस्तों से ज्यादा से ज्यादा बेहतर तरीके से कनेक्ट हैं. ऑरकुट, ट्विट्र, फेसबुक, हाई-फाई, लिंक्डइन, इन्ड्या रॉक्स, और न जाने क्या-क्या. यह सब हमारे बढ़ते सामाजिक दायरा के उदहारण हैं. फ्रेंड लिस्ट में 500 से ज्यादा दोस्त हैं, फिर भी दिल खुद को अकेला महसूस करता है. कहीं एक कमी सी है तभी तो हम बाज़ार में आने वाले इस दोस्त और दोस्ती के नित नए ऑफर्स को एक्सेप्ट कर रहे हैं. व्यावसायिक कंपनियां भी इसी जुगाड़ में लगी रहती हैं कि किस प्रकार इस रिश्ते को नए कलेवर और पैकेजिंग में उतारा जाए. जरूरत के मुताबिक इंटरनेट पर नॉर्मल फ्रेंड फाइंडर साईट्स से लेकर अडल्ट फ्रेंड फाइंडर साईट्स तक अवेलेबल हैं. बस, जेब से क्रेडिट कार्ड निकालिए और मन मुताबिक इस रिश्ते की खरीददारी कीजिये.
दोस्ती के भी आपको आजकल नए-नए रूप देखने मिलेंगे. नेट फ्रेंड्स, कॉलेज फ्रेंड्स, मोहल्ला फ्रेंड्स, चैट फ्रेंड्स, पेन फ्रेंड्स, एसएमएस फ्रेंड्स. तकनीकी क्रांति के पहले शायद दोस्ती के इतने फ्लेवर मौजूद नहीं थे. ज्यादा जरूरत बढ़ी तो फ्रेंडशिप क्लब बन गए. एक पुराने न्यूजपेपर में किसी फ्रेंडशिप क्लब के क्लासीफाइड ऐड की बानगी कुछ यूं थी. अपने शहर में हाई प्रोफाइल हाउस वाइफ और महिलाओं से दोस्ती करें और हजारों कमाएं. सौजन्य से ब्लैक ब्यूटी फ्रेंडशिप क्लब. निम्न मोबाइल पर संपर्क करें. अगर ये सोचें कि दोस्ती करने से हजारों की कमाई कैसे होगी, तो शायद आप सोचते ही रह जायेंगे. कुकुरमुत्ते की तरह उग आये इन फ्रेंडशिप क्लबों के नाम पर छपने वाले विज्ञापनों की असलियत क्या है, वो तो हमें गाहे-बगाहे समाचार पत्रों से पता चलता ही रहता है.

बहुत पहले साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल का एक निबंध पढ़ा था, जिसमें मित्रता पर उन्होंने कहा था कि मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर जीवन की सफलता निर्भर करती है. पर आज के जमाने में हमने इस स्टेटमेंट को अपने तरीके से समझ लिया है. कैसे? हम उन्हें ही मित्र बनाते हैं, जिससे जीवन में सफलता के चांसेज बढ़ जायें. वक्त बदला तो मित्रता के मायने भी बदल गए. आज हमें दोस्त और दोस्ती भी थैला भर के चाहिए. एक दोस्त छूट गया तो क्या गम, बाकी तो हैं. समस्या तो यही है, गम क्यों नहीं है, क्या दोस्ती भी बाज़ार में मिलने वाले विभिन्न सर्विस प्रोवाइडर्स के सिम कार्ड की तरह हो गयी है, जिसमे सर्विस न पसंद आने पर दूसरा कार्ड लेने की सुविधा है. ज़ंजीर में प्राण साहब के लिए यारी ही ईमान थी और यार ही जिंदगी. पर यह मॉरल्स फिल्म के साथ ही पुराने पड़ गये. आजकल इश्क कमीना और कम्बख्त हो गया है. मुहब्बत, बेईमान मुहब्बत हो गयी है. दोस्ती भी दोस्ती न रही, दिल दोस्ती etc हो गयी है. क्या आपको नहीं लगता कि हमें दोस्त और दोस्ती के मतलब को समझने के लिए एक रेवोल्यूशन की जरूरत है, सोचियेगा जरूर.

पागलपंथी भी जरूरी है

तिवारी जी को लोग़ आजकल 'स्टंटर' तिवारी के नाम से भी जानने लगे हैं.असली नाम तो शायद कुछ एक को ही पता हो.जीवन में ३० से ऊपर वसंत देख चुके तिवारी जी के पास कहने को तो डाकटरी की डिग्री भी है पर आजकल उनका मन प्रैकटीस में नही लगता.सब कुछ कुछ छोड़ छाड़ कर रेसिंग ट्रैक पर स्टंट करते दिखने लगे हैं.किसी तरह जुगाड़ करके मनपसंद बाईक खरीदी और चल पड़े जीवन में एडवेंचर की तलाश में.तलाश पूरी हुई कि नही,यह तो नही पता,पर आजकल वो बिस्तर पर हैं.किसी होलीवुड फिल्म के मोटर साईकल स्टंट को कॉपी करने के चक्कर में हाथ पैर तुड़ा कर बैठे हैं.उनके उत्साह में कोई कमी नही हुई है और वो ट्रैक पर वापसी की तैयारी में हैं
पर आपका सोचना भी लाजिमी है कि आज इस तरह का एक्साम्पल क्यों?पिछले कई महीनो से मै और मेरे मित्रों को जीवन नीरस सा लग रहा है.वही,सुबह से शाम, तक की नौकरी और उसके बाद दिल की दबी हसरतों का गला घोंटना.जब आत्म मंथन किया तो यही एक वाजिब वजह दिखी कि हमारे जीवन में 'पागलपंथी तत्त्व' की कुछ कमी आ गयी है.अब आप सोचेंगे की यह कौन सा एलेमेन्ट है?जी हाँ,एक ऐसा एलेमेन्ट हम सबके अन्दर होता है.एक शरारत भरी फीलिंग जिसे हम पूरा करके कुछ हटके महसूस करते हैं.पर कहीं न कहीं,हम लोक लाज और सामाजिक दबाव में उन हसरतों को दबा देते हैं.मसलन तिवारी जी के शौक का कनेकशन,उनके पेशे और परिवेश से कहीं भी मैच नही करता.पर उन्होंने दिमाग के जगह दिल की बात सुनी और वही कर रहे हैं जिसमे उनको ख़ुशी मिल रही है.

बरिस्ता और सी.सी.डी में तो रोजाना काफी पीते हैं पर कभी कभी सड़क के किनारे लगे ठेले पर भी चाय पीने का दिल करता है पर यह भी ख्याल आता है कि अगर सक्सेना जी,मल्होत्रा जी,खन्ना जी ने देख लिया आपके 'स्टैनदर्ड' के बारे में क्या सोचेंगे?कालेज लाईफ के दौरान सिनेमा हाल के सबसे आगे की सीट पर बैठ कर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन उचकाकर फिल्में देखना और सीटी मारना भी हम मिस करते होंगे.घर पर किसी छोटे बच्चे को जब आप वो विडियो गेम खेलता देखते होंगे जिसमे कभी आप खुद को मास्टर समझते थे तो दिल में यही आता होगा कि एक बाज़ी खेल कर देख ही लें पर हर इच्छा को हम यही सोच कर दबा लेते हैं कि लोग़ क्या कहेंगे?अपने से जयादा दूसरों के बारे में सोचकर हम रोजाना न जाने कितने खुशिओं का गला घोंटते हैं?

पर जिनके दिल पर दिमाग हावी हो जाता है वो फिर उसी की ही सुनते हैं और यह भूल जाते हैं कि ख़ुशी दूसरों के खुशिओं कि कीमत पर नही मिल सकतीं.मेरे स्कूल लाईफ में भी एक ऐसा लड़का था जिसका पागलपंथी एलेमेन्ट जरा हटके था जैसे दूसरों के सीट्स के नीचे पिन रख देना,लड़कियों के बालों में च्विंग गम चिपका देना आदि.आज भी बहुतेरे ऐसे लोग़ मिल जाते हैं जिन्हें दूसरों को परेशान करके एक मनोवैज्ञानिक ख़ुशी मिलती है.लड़कियों और महिलाओं पर बेवजह छींटा कशी और कमेंट्स करने वाले लोगो को जो भी ख़ुशी मिलती हो पर वो भी उनके पागलपंथी एलेमेन्ट का बिगड़ा हुआ रूप है.हालांकि यह कहना सरासर गलत है कि वो ऐसा अपनी दिल की आवाज सुनकर करते हैं.

इसलिए यह ख्याल रखना है कि अगले बार अपने पागलपंथी को शांत करने के चक्कर में दूसरों का मानसिक उत्पीडन न हो.हाँ,एक बात और,थोडा सा प्रीकाशन भी रखना है.वरना,राए साहब की तरह गर्ल फ्रेंड को बाईक पर बिठाकर जेम्स बोंड की तरह बेतहाशा गाडी चलाने के चक्कर में में हाथ पैर न तुडवाना पड़े.गर्मी की छुटियाँ आ रही हैं.मौका भी है और दस्तूर भी.ज़िन्दगी के रेगुलर पैटर्न से कुछ वक़्त निकालकर लग जाईए,अपने पागलपंथी तत्त्व की खोज में और हाँ,लोगों की परवाह करना छोड़ दीजिये क्योंकि लोगों का काम ही है कहना....
३० अप्रैल को i-next में प्रकाशित..http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=4/30/2010&editioncode=1&pageno=16

बूँद बूँद का सपना..

गर्मियों के आते ही दूबे जी का एकसूत्री कार्यक्रम है.अपने सो काल्ड बगिया के गिने चुने चार पौधों को पानी देते हुए पूरे घर के फर्शों को पानी से धुलना.भरसक कोशिश करता हूँ कि मैं उनके 'वैचारिक सुनामी' का शिकार ना बनू पर आमना सामना to हो ही जाता है,भई,पडोसी जो हैं.अटैक इस दी बेस्ट डीफेंस,सो मै उनके फर्श धुलाई कार्यक्रम को आड़े हाथ लेते हुए कहने लगा कि जब दुनिया २२ मार्च को विश्व जल दिवस मनाने के प्रति गंभीर है तो आप काहे यूं पानी की फिजूल खर्ची में तत्पर हैं. दूबे जी ऐसे बिफरे मानो उन्हें मैंने लाल कपडा दिखा दिया हो.कहने लगे कि जब जूबी डूबी गाने में करीना आरटीफीसीयल बारिश में भीगते दिखती हैं तब तो हम युवा चटखारे लेकर देखते हैं और पानी के फिजूलखर्ची के बारे में नहीं सोचते.मैंने उन्हें समझाया कि फ़िल्मी कल्पना बारिश और पानी के बिना अधूरी है.कहने लगे कि तेल लेने गयी ऐसी कल्पना.पूरी उम्र बीत गयी फिल्मों में यह देखते देखते कि बरसाती रातों में अक्सर भीगी भागी हेरोइने आसरा लेने नायक का दरवाजा खटखटाती हैं.न जाने कितने सावन भादो बीत गए.पर घर के चौखट पर सीवर चोकिंग के फलस्वरूप इकठ्ठा कचरे के अलावा किसी और ने दस्तक नहीं दी.

बात को घुमाते हुए मैंने उन्हें बताया कि इस साल २०१० वर्ल्ड वाटर डे पर एक विश्व्यापी एवायरनेस कार्यक्रम के तहत हजारो वालेंटीयरस,टॉयलेट के लिए एक सांकेतिक क्यू का निर्माण करके लोगों का ध्यान आकर्षित करेंगे.सुलगे हुए दूबे जी के अनुसार इस तरह के टॉयलेट क्यू का बनना तो हमारे देश में हर सुबह का आम नज़ारा है.इससे कौन सा पानी के प्रति एवायरनेस पैदा हो जायेगा.दुनिया की नज़र पांड़े जी के अहाते में लगे दर्ज़नो यूकीलिप्टस पेड़ों पर नहीं जाते जो प्रतिदिन अपने से दुगने व्यक्तियों का पानी धरती से सोखते रहते हैं.बात तो उनकी सही थी पर सार्वजिक परिचर्चा में निजी खुन्नसों को दूर रखना दूबे जी को कौन सम्झाए.मैंने उन्हें समझाया की संसार में अनेको ऐसे स्थान हैं जहाँ टॉयलेट जैसे मूलभूत सुबिधाओं का भी टोटा है.ऐसे में यह क्यू इवेंट मूलभूत जरूरतों के लिए आम इंसान के पहुँच का प्रतीक है.यह उन 2.5 billion लोगों के लिए आवाज उठाने की कोशिश है जिनकी साफ़ पेयजल तक पहुँच ही संभव नहीं है.

वैसे भी हम उस देश के वासी हैं जहाँ एक ओर तो गंगा के पानी को अमृत का दर्ज़ा दिया जाता है वहीँ दूसरी ओर कुम्भ जैसे आयोजनों में फूल,गजरे,अगरबत्ती,आदि से गंगा को प्रदूषित करने के अलावा लोग सुबह सुबह चुपके से तट पर ही दैनिक क्रियाओं से भी बाज नहीं आते.हम इसलिए भी ख़ास हैं क्योंकि हम बाथ टब में नहाते,खुले टैप पर ब्रुश करते,गाड़ियों को धोते रोजाना लाखों लीटर पानी वेस्ट करते हैं और जरूरत पड़ने पर पानी की बोतल खरीदने से लेकर हजारों रुपए के वाटर सैनीटेशन भी करते हैं.एक आंकड़े के अनुसार,पानी जनित रोगों से विश्व में हर वर्ष २२ लाख लोगों की मौत हो जाती है। शायद इसी वजह से इस साल वर्ल्ड वाटर डे की थीम है-clean water for a healthy world. जहाँ तक भारत की बात है,करीब 15 लाख बच्चों की प्रतिवर्ष तो सिर्फ डायरिया के कारण मृत्यु हो जाती है।वैसे,एक आंकड़ा यह भी है कि भारत जल की गुणवत्ता के मामले में 122 देशों में से 120वें स्थान पर आता है।

प्यासे को पानी पिलाकर पुण्य कमाने वाले देश में आज पानी के लिए हत्याएं हो रही हैं.याद आता है वो बचपन जब स्कूल जाते समय आज की तरह वाटर बोतल ले जाने की कभी जरूरत नहीं पड़ी.स्कूल के पीछे कुएं पर लगा हैंडपंप हम सबकी प्यास बुझाने के लिए काफी था.वो अनगिनत तालाब अब सुख चुके हैं जिनका किनारा कभी हमारा प्ले ग्राउंड हुआ करता था.हैंडपंप के पानी से भरे मिटटी के मटके ने कब रूप बदल कर कैंडल वाले फिल्टर में बदल गया पता ही नहीं चला.शायद अब वो समय आ गया है कि जब हम पानी कि कीमत को समझें वरना वो दिन दूर नहीं जब नहाना,धोना,सुखाना,भीगना,भिगाना,जैसे शब्द सिर्फ डिक्शनरी में ही रह जायें और अफ़सोस में निकला आखों के पानी की भी कीमत लगने लगे.
(22 मार्च को i-next में प्रकाशित)link-http://www.inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=3/22/2010&editioncode=1&pageno=12

भारत पाकिस्तान में एक बार सुलह हो सकती है पर दूबे जी और तिवारी जी का आपसी कलह कभी खत्म नही हो सकता.पर इनके बीच होने वाला कोई भी विवाद,घिसी पिटी देख लेने की धमकी और बोल बचन में ही निपट जाता है.वैसे भी,हिंसा किसी विवाद का हल नही.पर रोजाना की खिटखिट सुनने के नाते मैं अक्सर सोचता हूँ कि एक दिन दोनों आर पार का फैसला ही कर लें.लेकिन सिर्फ मेरे सोचने से क्या होता है?दूबे जी का आरोप है कि तिवारी जी,अपने गुर्गों से कहकर रोजाना उनके मेनगेट के सामने कूड़े का अम्बार लगवा देते हैं.तिवारी जी का भी यही मानना है कि उनके घर के चाहरदीवारी के अन्दर अक्सर मिलने वाले सब्जियों के छिलकों और प्लास्टिक रैपर्स के पीछे दूबे जी का ही हाथ है.ताज़ा प्रकरण में किसी ने छुट्टियों में गाँव गए दूबे जी के चाहरदिवारियों पर 'यहाँ पेशाब करना मना है' लिख दिया.लौट के आने तक उनके घर की दीवारों की हालत कुछ यूं थी कि उन्हें कुछ दिनों के लिए किराए के मकान में शिफ्ट होना पड़ा.

अब इसमें तिवारी जी का हाथ हो या ना हो,पर सवाल यह है कि कि हम वो काम ज्यादा क्यों करते हैं जो हमें मना किया जाता है?मसलन जहाँ वाहन खड़ा करने या पोस्टर चिपकाने की मनाही होती है,वहां ही इन नियमों की ज्यादा धज्जियाँ उड़ाइ जाती हैं. सरकार चीखती रह गयी कि बिना आइ एम आइ के मोबाइल इस्तेमाल करना सही नहीं पर जब तक उनपर पाबंदी न लगी,हम नही माने.शराब पीकर गाडी चलाना मना है,सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान मना है,atm में एक से ज्यादा लोगों का प्रवेश मना है.सड़कों और दीवारों पर पान मसाला खा कर थूकना मना है,ट्रेन के स्लीपर क्लास में जनरल का टिकट लेकर चलना मना है,ऑटो में ज्यादा सवारी भरना मना है,पाइरेटेड सीडी और डीवीडी का प्रयोग मना है,शादी में असलहों से फाइरिंग मना है,१८ साल से कम उम्र के लोगों का वयस्क फिल्मों हेतु सिनेमा हाल में प्रवेश मना है.मना तो बहुत कुछ है साहब,पर मानता कौन है?


हाल में ही अमेरिका यात्रा से लौटे मेरे गुरु जी का मानना है कि वहां लोगों को 'जुगाड़' यन्त्र के बारे में नही पता.शायद तभी वो नियमों के पालन के प्रति ज्यादा सजग हैं. वैसे भी हम भारतीय जुगाड़ के प्रति ज्यादा आशान्वित रहते है,शायद यही भावना हमें नियमों को ना मानने के लिए प्रेरित करती है.ट्रेफिक पुलिस के हत्थे चढ़े,तो बड़े साहब लोगों का जुगाड़.पासपोर्ट ,ड्राइविंग लाइसन्स नही बन रहा तो दलालों का जुगाड़.कहीं एडमीशन नही मिल रहा तो फर्जीवाड़े का जुगाड़.यानि जुगाड़ सर्वोपरि है.जुगाड़ पर हम कितने आधारित हैं,इसका एक्जाम्पल सुनिए.मेरे एक मित्र ने जब मुझे छोटे शहर छोड़ बड़ी जगहों पर करीयर हेतु प्रयासरत होने के लिए सुझाव दिया तो मैंने प्रयास करने से पूर्व ही जुगाड़ के बारे में पूछ लिया.मेरे एक अन्य मित्र कुछ दिनों के लिए गुजरात गए थे.चूंकि गुजरात में शराब पीना मना है,इसलिए उन्होंने मात्र कुछ ही किमी दूर केद्र शाषित प्रदेश दमन और दीव में जाकर जुगाड़ बना ही लिया.दिल्ली नॉएडा सीमा में रहने वाले बहुतेरे शराब प्रेमी कीमतों के फर्क को मिटाने के लिए रोजाना सीमा लांघते हैं.

एक सर्वे के अनुसार सिगरेट के पैकेटों पर छपी मौत की चेतावनी वास्तव में धूम्रपान करने वाले लोगों को इसके लिए और प्रेरित करती हैं।यानि स्प्रिंग को जितना दबाया जाएगा,उतना ही तेज रेएक्शन होगा.हाल में ही,उच्चतम न्यायालय ने भी केन्द्र सरकार के वेश्यावृत्ति के प्रति रुख पर टिप्पणी करते हुए पूछा था कि अगर सरकार इस पेशे पर पाबंदी नहीं लगा सकती तो इसे कानूनी मान्यता क्यों नहीं दे देती?कुल मिला के,हम मना की हुई चीजों को करने में ज्यादा फक्र महसूस करते हैं.शायद तभी राम गोपाल वर्मा की फिल्मों 'डरना मना है'और 'डरना जरूरी है' में डरना 'मना' है ज्यादा सफल हुई.यानि सिर्फ मना करना समस्या का हल नही.'बिन भये होए न प्रीति' में विश्वास करने वाला हमारा समाज कब खुद से अपने बारे में सोचना शुरू करेगा,यह देखना तो दिलचस्प होगा.फिलहाल तब तक मनमानी के इस दौर का आनंद लेने में ही भलाई है.