व्हाट्स योर स्टेट्स.....

दूबे जी समाज में स्वयं के गिरते हुए प्रतिष्ठा से आहत हैं।मुझे लगा कि शायद उनके बेटे ने फिर तीसरी गली के लोकल कटरीना को छेड़ दिया है,पर मामला कुछ और ही था।पड़ताल की तो पता चला कि वो तो अपने फेसबुक अकाउन्ट के स्टे्टस अपडेट पर,कम होते कमेंट्स की संख्या से दुःखी है।कहने लगे कि इक ज़माना था कि जब उनके स्टे्टस अपडेट करते ही लोगों द्वारा बीसियों कमेंट्स की झड़ी लग जाती थी।आज तो बमुश्किल कोई ‘लाइक दिस’ का बटन दबा दे,वही बड़ी बात है।दूबे जी की मानें तो आज के ज़माने में सम्मान का प्रतीक गाड़ी,बंगला,बैंक बैलेंस नहीं बल्कि स्टे्टस अपडेट पर गिरते हुए कमेंट्स और ‘लाईक दिस’ करने वालों की संख्या है।सामाजिक रूतबे के इस नए फंडे को जानकर मैं तो चौंक ही गया।

तकनीकी समस्या का हल तकनीक से ही सम्भव है,सो मैंने उन्हें राय दी कि अगले बार से स्टेटस अपडेट करते समय वो गु्रप एस एम एस का प्रयोग करके सभी को कमेंट करने के लिए सूचित कर दिया करें। ऐसा लगा कि मानो मैने उन्हें लाल कपड़ा दिखा दिया हो।कहने लगे कि सम्मान मांग कर नही कमाया जाता।इससे अच्छा तो वो मरना यानि एकाउंट डिलीट करना पसंद करेंगे।उनके जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए जब मैंने उनके धुर विरोधी तिवारी जी के स्टे्टस अपडेट की तारीफ की तो वो बिलबिला उठे।उनकी मानें तो तिवारी जी स्चयं के द्वारा ही बनायी हुई अनगिनत फेक आई डीज् से अपने स्टे्टस पर कमेंट करते रहते हैं।दूबे जी का तो यह भी मानना है कि वो दिन दूर नहीं जब कमेंट्स लिखना ‘पेड सर्विस‘ हो जाए।

इंटरनेट क्रांति के चलते अभिव्यक्ति का जबरदस्त माध्यम बनकर उभरा ब्लागिंग,अब सिकुड़कर माइक्रोब्लागिंग में बदल गया है।चंद लफ्जों में जमाने भर की बात कह देना,एक आर्ट बन गया है।गौर से देखा जाए तो ये स्टे्टस अपडेट्स अपनी बुद्धिजीविता,ज्ञान,दंभ,हैसियत आदि को दिखाने का एक ज़रिया बनकर उभरीं हैं।सोशल नेटवर्किंग के इस हथियार को कोई विवादों को जन्म देने के लिए प्रयोग कर रहा है((आईपीएल विवाद की शुरुआत ललित मोदी ने ट्व्टिर पर ही की थी)तो कोईअपने विरूद्व प्रचलित अफवाहों का खंडन करने के लिए (अमिताभ ने कई मुद्दों पर सफाई अपने ब्लाग के जरिए ही दी है)अपनों से ही बेगाने हो चले उनके छोटे भाई अमर सिंह भी अपने दिल का दर्द ब्लाग की ज़बानी ही व्यक्त करते हैं।फिर वो सचिन जैसे क्रिकेट खिलाड़ी हों या नरेन्द्र मोदी और नीतिश कुमार जैसे राजनीति के मझे हुए खिलाड़ी,शाहरूख जैसा बालीवुड का बादशाह हो या विजय माल्या जैसा उद्योगपति,कोई भी इसके मोह से अछूता नहीं।

फीडबैक के बिना कम्यूनीकेशन अधूरा है।शायद यही वजह है कि विचारों पर सहमति असहमति को जानने से लेकर शादी में पहने जाने वाली ड्रेस तक पर आम राय इन ब्लाग्स पर मांगी जा रही है।सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठाने का काम भी कर रहे हैं,ये ब्लाग और स्टेटस अपडेट्स।निरूपमा पाठक हत्याकांड के बाद बने अनेक ब्लाग्स,फोरम और लोगों के स्टेटस अपडेट इसके गवाह हैं।जब किसी धर्मगुरू ने कहा कि दुनिया में आने वाले प्राकृतिक आपदाओं की वजह महिलाओं के छोटे कपड़े पहनना है,तो सोशल साइट पर शुरू हुआ ‘बूब क्वेक’ जैसा अभियान सारी दुनिया के स्त्रियो के विरोघ का स्वर बना।एक शाम जब अचानक से दुनिया भर की महिलाओं के स्टेटस अपडेट में,रेड,ब्लू,ब्लैक आदि रंग लिखा दिखाई दिया तो पता चला कि यह ब्रेस्ट कैंसर के अवेयरनेस हेतु गुपचुप तरीके से चलाया जा रहा ब्रा कलर कैंपेन था।रूढ़ियों को तोड़ती और दुनिया को जोड़ती,,अभिव्यक्ति और आज़ादी का अगुआ बन चुके हैं,ये ब्लाग्स और स्टे्टस अपडेट्स।

कुछ दिन पहले सुना कि किसी ने बीसियों साल पहले खो चुके अपने परिवार को फेसबुक के जरिए ढं़ूढ निकाला। किसी को बहुत ही रेयर मिलने ब्लड गु्रप का खून,एक स्टे्टस अपडेट के ज़रिए बड़ी ही आसानी से उपलब्घ हो गया।ंअब तो सुना है कि लिख कर ब्लागिंग करने के दिन गए,‘बबली’ के जरिए अब बोल के ब्लागिंग होगी।आने वाले समय में हो सकता है कि सोच के भी ब्लागिंग करना सम्भव हो जाए।पर असल बात तो यह है कि इस सोशल नेटवर्किंग,ब्लागिंग और माइक्रोब्लागिंग ने बहुत कुछ बदला है और आने वाले समय में,और भी बहुत कुछ इनके ज़रिए बदलेगा,यह मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता।
२३ जून को i-next में प्रकाशित.http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=6/23/2010&editioncode=1&pageno=12#

बीते हुए लम्हों की कसक....


दूबे जी को सड़कों के किनारे खोमचे पर कुछ खाते देखना एक दुर्लभ संयोग है.वैसे भी,उनके जैसे चमड़ी और दमड़ी दोनों को ही एक समान महत्व देने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा करते दिखना,धूमकेतु दिखने जैसा ही है.पडोसी होने के नाते उनसे मिलते ही,मैंने बेमन से यह आग्रह कर डाला कि अगर मिसेज दूबे घर पर नहीं है तो आज रात का भोजन वो मेरे घर ही कर लें. भोजन के निमंत्रण पर भावुक हो उठे दूबे जी बताने लगे कि आज फिर से 'दुबाईन' ने घर पर भूख हड़ताल छेड़ दी है.कारण यह है कि आज सालों बाद दूबे जी पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने निकले और गलती यह कर दी कि सिंगल स्क्रीन थीएटर का रुख कर लिया.बाकी,सीनेमाहॉल के फटे हुए सीट्स,अचानक कटते सीन्स,बीच बीच में गायब संवाद,धुंधली स्क्रीन और बेवजह पॉवर कट ने श्रीमती जी का मूड ख़राब कर दिया.
'दुबाईन' के गुस्से को मैंने जायज करार दिया.मैंने समझाया कि वो थोडा ज्यादा पैसे खर्च कर के वो किसी मल्टीप्लेक्स का रुख भी तो कर सकते थे.पैसों की बात आते ही वो तड़प उठे.वैसे भी,वो देश में तेजी से घटते सिंगल थीयेटर्स की कमी से काफी दुखित थे.कहने लगे कि बरसाती घास की पनपते इन मल्टीप्लेक्सों की वजह से ही यह सिंगल स्क्रीन हाल अब 'इनडेनजर्ड स्पीसीज' की श्रेणी में आ गयें हैं.बात तो उनकी सही थी.तेजी से बंद होते यह सिंगल स्क्रीन थियेटर अब देश में करीब ११००० ही रह गए हैं. जबरदस्त घाटे सहते यह थीयेटर्स या तो अश्लील या भोजपुरी सिनेमा का केंद्र बन गए हैं या बंद होकर शहर में लगने वाले विभिन्न सेल्स के लिए मुफीद जगह बन चुके हैं.
मैंने दूबे जी को समझाया कि इन्ही मल्टीप्लेक्सों की वजह से तो आज हमें एक ही स्थान पर कई फिल्मों का विकल्प मिल जाता है.गुस्साए दूबे जी ने मल्टीप्लेक्सों को सिर्फ फर्जी स्टेटस सिम्बल और पैसे के शो ऑफ का अड्डा करार दे डाला.कहने लगे कि काहे का विकल्प उपलब्ध हुआ है?आज भी भारतीय जनता घर पर ही मूवी डीसाएड करके हॉल का रुख करती है.कुछ एक ही ठलुए ऐसे हैं जो समय हत्या के लिए कोई भी मूवी देख लें.सो विकल्पों की बात तो बेइमानी है.बहरहाल,देखा जाए तो,१५० रूपए में टिकट ,3० रूपए में दो समोसा,५० रूपए में सूखा सैंडविच और करीब उतने में ही एक कोल्डड्रिंक खरीदना दूबे जी के लिए ही नहीं,बहुतों के लिए एक हर्कुलियन टास्क है
सोचने की बात तो है.तेजी से बढ़ते इन मल्टीप्लेक्सों ने ही सिंगल स्क्रीन थीयेटर्स को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत बना दिया है.एक तो बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों ने इस व्यवसाय के तरफ रुख किया है,रही सही कसर,सरकार की नीतियों ने पूरी कर दी है.मल्टीप्लैक्स वालों को किसी छोटे शहर के सिंगल स्क्रीन थियेटर वालों से भी कम मनोरंजन कर देना होता है क्योंकि इन मॉल्स को सरकार ने पनपते उद्योगों की श्रेणी में रखा है.लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमा को भारी मनोरंजन कर के अलावा एज्यूकेशन टैक्स,रोड टैक्स आदि कई तरह के टैक्स देने पड़ते हैं। यही नहीं, साप्ताहिक कलेक्शन का 1 प्रतिशत सरकारी संस्था ‘फिल्म्स डिवीजन’ को और प्रॉपर्टी टैक्स महानगर पालिका को देना पड़ता है।ऐसे में यह घाटे सहकर बंद न हो तो और क्या हो?
लेकिन इन सिंगल स्क्रीन्स के बंद होने की वजह सिर्फ यही नहीं है.आज हम सभी अपने पैसे की पूरी वसूली चाहते है.सुविधाओं के इसी भूख को पूरा किया है-मल्टीप्लेक्सेस ने.सिंगल स्क्रीन थियेटर का गन्दा पड़ चुका शौचालय,मल्टीप्लेक्स के एयर फ्रेशनर युक्त वाशरूम में तब्दील हो चुका है.अधिकतर सिंगल स्क्रीन थियेटर पीकदान बन चुके है.सीटें और मशीनें खस्ताहाल हैं.गर्मियों में झुलसते यह खाली पड़े हाल अब युवा और प्रौढ़ दोनों प्रकार के प्रेमी युगलों के लिए ख्वाबगाह बन चुके हैं जो उन्हें मनोवांछित अँधेरा प्रदान करता है.रही सही कसर इन हाल्स में भीड़ का एक हिस्सा फिल्म के दौरान अश्लील और भद्दे कमेंट्स से पूरा कर देता है,जो सभ्रांत तबके को इन हाल्स में आने से रोकता है.
मनोरंजन को नयी परिभाषा देतीं इन मल्टीप्लेक्सों ने आज हमें सबकुछ दे दिया है पर टिकट खिड़की की वो गहमा-गहमी,टिकट ब्लैकियों से वो मोलतोल,हजारों के बीच बालकोनी में बैठने का वो शाही अंदाज़ और सामने की कतार से आने वाले वो तीखे कमेंट्स जो बरबस ही होटों पर मुस्कान ला देते थे,छीन लिया है.हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इन बंद हो चले या घाटा झेल रहे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को बचाने के लिए उन्हें शॉपिंग मॉल में बदलने की मंजूरी देने का फैसला किया है पर सिर्फ इतना प्रयास काफी नहीं है.अगर हम सभी ने मिलकर मनोरंजन के इस गौरवशाली अतीत को नहीं सहेजा तो शायद एक दिन सिंगल स्क्रीन का वह दशकों पुराना सुनहरा दौर किताबी इतिहास का हिस्सा बन कर रह जाए.